हरियाणा के लोकप्रिय वाद्य यंत्र – popular musical instruments of haryana

 हरियाणा के लोकप्रिय वाद्य-यंत्र

तत्वाद्य यंत्र :

सारंगी :

यह सागवान, केर तथा रोहिड़ा की लकड़ी से बनाई जाती है। जिसमें बकरे की आंत के तार होते हैं। और “गज” से इसे बनाया जाता है। “गज” मैं घोड़े की पूंछ के बाल होते हैं। यह गजब आंत की तार पर रगड़ खाती है तो मधुर स्वर उत्पन्न होते हैं। स्थान तथा बजाने वाले की शैली के आधार पर सारंगी के अनेक भेद हो जाते हैं – जोगिया सारंगी, सिंधी सारंगी आदि। पानीपत घराने के उस्ताद मामन खां को हरियाणा के सर्वश्रेष्ठ सारंगी वादक का सम्मान प्राप्त था।

तूंबा :

कटे हुए तुंबे से निर्मित इस वाध यंत्र के एक सिरे पर चमड़ा मढ़ा जाता है। चमड़े में एक छेद कर उसमें पशु की आंत का तार डालकर, उसके दूसरे सिरे पर लकड़ी का टुकड़ा बांधा जाता है। इसके बजाने का तरीका यह है कि वादक इसे कांछ में दबा कर, एक हाथ से तानत को खींच, दूसरे हाथ से लकड़ी के टुकड़े द्वारा प्रहार करता है। इस वाद्य का प्रयोग सपेरे बीन के साथ करते हैं।

इकतारा :

यह वाद्य यंत्र बांस के टुकड़े को तूंबे के साथ जोड़कर बनाया जाता है। जिस पर एक तार खींचा जाता है। यदि दो तारे हों, तो इसे दो तारा कहा जाता है। यह वाद्य यंत्र एक हाथ में पकड़ कर उसी हाथ की उंगली से तार पर प्रहार कर बजाया जाता है।

दोतारा :

यह दो तार वाला यंत्र है और यह एकतारा की तरह उसी प्रयोजन को पूरा करता है।

बैंजो :

इसकी बाई और हरमोनियम सदृश स्वर होते हैं। स्वरों के नीचे लगे बारीक तारों को दाहिने हाथ अथवा प्लास्टिक के टुकड़े या ब्लेड से बजा कर ध्वनि निकाली जाती है। यह वाद्य लोक गायकों में लोकप्रिय हो गया है। इसका परिष्कृत रूप है ‘इलेक्ट्रिक बैंजो’।

सुषीर वाद्य यंत्र :

बांसुरी :

दोनों और से खुले इस बाद में 7 छेद होते हैं। कुछ बांसुरिया मुख के सामने रखकर तथा अन्य मुख के समानांतर रखकर बजाई जाती हैं।

अलगोजा :

बांसुरी के आकार प्रकार का, लकड़ी या बांस से निर्मित, यह वाद्य यंत्र भी हरियाणवी संगीत में अपना विशेष स्थान रखता है। आमतौर पर यह छोटी बांसुरी कितना होता है। दो अलगोजे एक साथ बजाई जाते हैं। मेलों और उत्सवों में तो यह धूम मचाते ही हैं, चरवाहे पशु चराते समय मनोरंजन के लिए इनका खूब प्रयोग करते हैं।

बीन :

यह वाद्य यंत्र भी बांसुरी की भांति वायु फूकने से बजाया जाता है। इस वाद्य यंत्र का निर्माण विशेष प्रकार के तुंबे से होता है। इसका ऊपरी भाग लंबा और नीचे का भाग गोल होता है। तुंबे के नीचे के भाग में, स्वरों के छेद वाली, दो नालियां लगाई जाती हैं। एक नाली से स्वर भरता है, तो दूसरी से निकाला जाता है।

शंख :

प्रयोग में लाने से पूर्व इसके आधार में एक छेद किया जाता है। महाभारत युद्ध में श्री कृष्णा, धनंजय, भीष्म पितामह के शंखों की ध्वनि की अलग पहचान थी। पांचजन्य, देवदत्त, उन्नत विजय क्रमश: भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन तथा युधिष्ठिर के शंख थे। शंख संपदा तथा प्रचुरता का प्रतीक माना जाता है। इसके दो प्रकार हैं – दक्षिणावर्ती तथा वामावर्ती। दक्षिणावर्ती शंख धार्मिक आयोजनों के लिए शुभ तथा दुर्लभ भी माना जाता है।
इससे स्वयं नाद की बात भी जुड़ी है। शंख मांगलिक प्रतीक तो है ही, वैज्ञानिक दृष्टि से भी उपयोगी है। इसकी ध्वनि जीवाणु नाशक कही जाती है।

शहनाई :

इसका प्रयोग शुभ अवसरों पर या विवाह के अवसर पर गीतों के साथ धन निकालने के लिए किया जाता है। इसको मुंह में दबाकर हवा फूकने से बजाया जाता है।

हारमोनियम :

हारमोनियम मूल रूप से भारत से संबंधित नहीं है। फिर भी हारमोनियम का प्रयोग प्राय: सांस्कृतिक प्रदर्शनों में दिखाई देता है। इसको बजाने के लिए एक हाथ से इसको दबाकर हवा भरी जाती है और दूसरे हाथ से इसे बजाया जाता है।

अवनद्ध वाद्य यंत्र :

ताशा :

तांबे अथवा लोहे के गोलाकार कुंडों पर बकरे की पतली खाल चढ़ाकर यह वाद्य यंत्र बनाया जाता है। इसे गले में लटका कर फांसी या प्लास्टिक की छडियों से बजाया जाता है। इसका प्रयोग शादी-विवाह के अवसर पर होता है। इसमें ढोल के आश्रय से विभिन्न लयकारियां प्रस्तुत की जाती है। यह मुगलकालीन लोक वाद्य यंत्र है।

डेरु :

डमरु के आकार का यह वाद्य यंत्र वास्तव में उसका ही बड़ा स्वरूप है। आम की लकड़ी से निर्मित इस वाद्य यंत्र के दोनों और बारीक चमड़ा चढ़ा कर इसे बनाया जाता है। इसके घेरे पर डोरी इस प्रकार बांधी जाती है कि डेरु के दोनों और चढ़ाई गई चमड़े की पतली खाल को, इच्छा तथा आवश्यकता अनुसार कसा ढीला किया जा सकता है। इसे पतली एवं मुड़ी लकड़ी से बजाया जाता है। धानक लोग रतजगा और गोगा पीर पर्व पर इसका वादन करते हैं।

डफ :

इस वाद्य यंत्र का प्रयोग मुख्य रूप से डफ तथा धमाल नृत्य में होता है। वृत्ताकार ड्रम के एक और चढ़ी खाल वाला यह वाद्य दूसरी ओर से खुला होता है। इस पर हाथ से ही थाप दी जाती है। त्योहारों में इसका मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है।

नगाड़ा :

लोहे के बड़े कटोरानुमा आकार वाले इस वाद्ययंत्र पर बकरे अथवा भैंस का चमड़ा चढ़ा कर इसे बनाया जाता है। यह दो प्रकार का होता है – एक बड़ा और दूसरा छोटा। छोटे के साथ एक नगाड़ी भी होती है। वादन में लकड़ी की डनडियों का प्रयोग किया जाता है। जिसे चोब की संख्या प्राप्त है। त्योहारों के अवसर पर इसके वादन की परंपरा मुख्यतः हैं। प्राचीन काल में किसी घोषणा के पूर्व नगाड़ा बजाया जाता था।

घड़वा :

यह मिट्टी का भट्टी में पक्का कर बनाया गया मजबूत घड़ा होता है जिसे चिकना कर लिया जाता है। इस के मुख पर रबड़ बांध लेते हैं। लय और ताल के साथ अंगुलियों या हाथ की थाप देकर इसे बजाया जाता है।

डफली :

यह लोक वाद्य यंत्र डफ का लघु रूप है। इसके भी एक और चमड़ा मढ़ा जाता है। इसमें घुंघरू भी प्रयोग होते हैं। अधिकतर इसका प्रयोग त्योहारों के अवसर पर किया जाता है।

नौबत :

यह धातु की गहरी अंडाकार कुंडी होती है, जिसे भैंस की खाल से मढ़कर चमड़े की डोरियों से कसा जाता है। वादन लकड़ी के डंडों से होता है। इसे मंदिरों में राजा – महाराजाओं के महलों के मुख्य द्वार पर बजाया जाता है।

ढोलक :

यह वाद्य यंत्र हरियाणवी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। पंजाबी लोक नृत्य भांगड़ा का प्रयोग यह प्राण है। इसका प्रयोग तीज -त्यौहार के अवसर पर किया जाता है पंजाबी लोग इसका ज्यादा प्रयोग करते हैं।

खंजरी :

यह लकड़ी का एक छोटा सा खेल घेरा होता है, जिसके एक और चमड़ा मढ़ा होता है – यह गोह या बकरी का होता है। घेरे में पीतल की गोलाकार पत्तियां लगी होती हैं। इसे हाथ की चोट से बजाया जाता है। यह जोगियों का वाद्य यंत्र है।

डमरु :

डमरु का स्मरण भगवान शिव की और ध्यान ले जाता है। भगवान शिव ने तांडव नृत्य के समय डमरू बजाया था। इसी की डुग-डूग पर मदारी भालू-बंदर नचाते हैं। गूगा नृत्य में भी इस वाद्य यंत्र का प्रयोग होता है। इसका आकार इस प्रकार से होता है कि मानो लकड़ी के दो त्रिशंकुओं को, नोक की ओर से, आपस में जोड़ा गया हो। दोनों और खाल मढ़ी होती है। बीच में बंधी दो छोटी-छोटी रसियों के चारों ओर डोर बांधी जाती है। इसे बीच से पकड़कर बजाया जाता है।

घन वाद्य यंत्र :

मंजीरा :

पीतल के दो बड़े चक्कर के आकार की आकृति से यह वाद्य यंत्र बना होता है। जिसमें डोरी पिरोई हुई होती है। डोरी पकड़कर, दोनों हाथों से, आपस में टकराकर इन्हें बजाया जाता है। मंजीरा झांझ का लघु रूप है, जो पीतल, जस्ता एवं तांबे के मिश्रण से बनाया जाता है। भक्ति एवं लोक संगीत में इस यंत्र का प्रयोग किया जाता है। आठ से सोलह अंगूल व्यास के धातु के गोल टुकड़े झांझ कहलाते हैं।

खड़ताल :

इसको बनाने के लिए आम के वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसमें लकड़ी की चार पट्टी गांव से काम लिया जाता है इसे हाथ की सहायता से बजाया जाता है।

चिमटा :

यह वाद्य यंत्र लोहे स्टील से बना होता है। इसमें गोलाकार की छोटी-छोटी लोहे-स्टील की पत्तियों को लगाकर बनाया जाता है। इसे दोनों हाथों में पकड़ कर बजाया जाता है इसका प्रयोग मुख्य रूप से त्योहारों के अवसरों पर किया जाता है।

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